12 June 2005

कविता-1

  • घरौंदा

गोबर से लिपा कच्चा आँगन

आँगन के कोने में बैठी

वो नन्हीं मासूम बच्ची

व्यस्त है अपने खेल में,

कर रही है कोशिश

शायद कुछ बनाने की

धरती के उस टुकड़े को

वह बुहारती हैपानी से सींचती है,

खोज लिए हैं उसने कहीं से

लकड़ी व चार टुकड़े

चार टुकड़े बन गए है अब

चार दीवारेंपत्तों की छत बना डाली

नन्हें हाथों ने जमा दिया

चुन–चुन कर सामान करीने से

नन्हा चूल्हा, विस्तर, किताबें,

गुड़िया, झूला और भीजाने क्या–क्या

शाख से झरे सूखे फूल चुने और बिछा कर

बना डाला एक बगीचा

अब देख रही हैसिर घुमा–घुमाकर

और हो जाती हैमन ही मन खुश

पूछ लिया,यूँ ही अचानक मैंने

क्या कर रही हो ?घल बना लही हूँ

और हँस पड़ी खिलखिलाकर

घूमने लगा मेरा मन

बचपन के कल्पना लोक से

आज के यथार्थ तक

काश ! ऐसे ही बन जाता एक घर

ऐसी ही मिल जाती निश्चिन्तता

और ऐसी ही मिल पाती

दूधिया हँसी !

***

-हेमन्त रिछारिया

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