12 June 2005

कविता- 4

  • मधुमास बने हम
क्यों इच्छा के दास बने हम
क्यों जग के परिहास बने हम
फैलाएँ अपने पंख और फिर
उन्मुक्त धवल आकाश बने हम।
शूलों से कैसा डरना है
ये तो पल भर का सपना है
आ खिलाएँ हृदय प्रसून अपना
फिर उड़ती हुई सुवास बने हम।
तोड़ निराशा के बंधन को
पग पग के इस क्रंदन को
जो उठता है दिल में रह रहकर
क्यों न वही विश्वास बने हम।
न बसने दें दिल में आहों को
थामें हम सबकी बाहों को
स्पंदित करे जो प्राणों को
ऐसा मधुर अहसास बने हम।
माना कि पतझर आता है
खिला फूल मुरझा जाता है
इस ऋतु का भी साथ निभा
आने वाला मधुमास बने हम।
***
-हेमन्त रिछारिया

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