12 June 2005

कविता-2

  • मजदूर
देखो ये मजदूर हैं।
हाँ हाँ ये मजदूर हैं।।
कठिनाइयों के साए में पले,
सुखी जीवन से कहीं दूर हैं।
हाँ हाँ ये मजदूर हैं।।
राह पथरीली संकरा गलियारा
बाहों का ना कोई सहारा।
भरी दुपहरी है फिर भी
बोझा ढोने को मजबूर है।
हाँ हाँ ये मजदूर हैं।।
घास फूस से बने घरों में
जब जीवन सिसकी लेता है
आँखों से झरता पानी
सारा अन्तस भर देता है,
अपने हाथों से अखियां पोछें
आँचल हुए अपनों के दूर हैं।
देखो ये मजदूर हैं ।।
अरमां इनके सीने में दफन हैं
सारे सुख मेहनत की रहन हैं
आँखों के सारे सपने इनकी
आँखों में ही चूर हैं।।
देखो ये मजदूर हैं ।।
माथे पे पसीना है इनके
नैनों में उदासी छाई है
किससे पूछें, कौन बताए,
खोई कहाँ तरुणाई है
बेरंग हुई है रंगत अब
हुए चेहरे बेनूर हैं।
देखो ये मजदूर हैं ।।
***


  • आशा

निराशओं के घने बादल छटेंगे एक दिन
बिछड़े मीत हमसे मिलेंगे एक दिन
तुम आस की शमां जलाए हुए रखना
इस लौ से नवदीप जलेंगे एक दिन
हौंसला हो दिल में रहे लक्ष्य पे नज़र
आज रुके कदम, फिर बढ़ेंगे एक दिन
सींचते रहना प्यार से तुम उनकी सरज़मीं
सूखे दरख्तों में भी फूल खिलेंगे एक दिन।।
***

-हेमन्त रिछारिया

1 Comments:

At 12:51 PM, Blogger Unknown said...

Really good one..

 

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